आज लेह में उनका अंतिम दिन है. कल
रात भी स्वप्न में कितने ही दृश्य दिखे, लद्दाख में देखे
स्थानों के भी और अन्य भी. स्वप्न अलग थे पर जगते हुए इन दृश्यों को देखना एक अलग
अनुभव है. चेतना जैसे ज्यादा मुखर हो गयी है. प्रकाश भी बहुत तीव्र है यहाँ. तेज
धूप निकलती है जो ग्लेशियर्स को पिघला रही है. नहरों-नालों में जल का तेज बहाव
शुरू हो गया है, जो खेतों को सींचने में काम
आयेगा. यहाँ मुख्यतः वर्ष के तीन-चार महीने ही खेती की जाती है. कल शाम वे लेह पैलेस तथा शांति स्तूप देखने गये. लेह महल
बहुत पुराना है, यह नौ मंजिला इमारत सत्रहवीं
शतब्दी में राजा सेंग्गे नामग्याल द्वारा बनवायी गयी थी, अब इसे राष्ट्रीय धरोहर घोषित कर दिया गया है. इसे बनाने
में मुख्यतः लकड़ी का प्रयोग हुआ है.
शांति स्तूप जापान के सहयोग से एक पहाड़ी पर बना एक अनोखा स्मारक है जिसमें
नीचे बुद्ध मन्दिर है तथा ऊपर भगवान बुद्ध के जन्म, ज्ञान प्राप्ति, तथा निर्वाण के
दृश्यों को मूर्तिकला के माध्यम से दर्शाया गया है. यह १९८५ में पूरा हुआ और दलाई
लामा के हाथों इसका उद्घाटन हुआ.
आज की यात्रा का मुख्य आकर्षण था मेगनेटिक हिल, लिकिर व अलची के गोम्पा तथा पत्थर साहेब गुरुद्वारे में दोपहर का लंगर. सुबह नौ बजे नाश्ता करके वे दोरजी की
इनोवा में निकले तथा सिंधु व झंस्कर नदी के संगम स्थल पर पहुंचे. दोनों नदियों के
जल का रंग भिन्न था यह स्पष्ट दीख रहा था. गर्मी के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं और
पर्वतों की ढलानों से मिट्टी के साथ पानी तेज गति से बह रहा है, सो मटमैला होने के बावजूद दो रंगों का था. वहाँ
रिवर-राफ्टिंग के लिए भी साजो-सामान रखा था.
मैग्नेटिक हिल पहुंचने पर कार अपने आप ऊंचाई पर चढ़ने लगी, ऐसा प्रतीत हुआ. लिकिर गोम्पा में भावी बुद्ध की विशाल
स्वर्ण प्रतिमा है जिसे जापान की सहायता से बनाया गया है. मन्दिर में अद्भुत
चित्रकला के माध्यम से भगवान बुद्ध के जीवन के मुख्य पड़ावों जन्म, ज्ञान प्राप्ति, दानवों पर विजय तथा
निर्वाण को दर्शाया गया है. उन दस अर्हतों के भी चित्र वहाँ थे जिन्होंने बुद्द्ध
की शिक्षाओं को संकलित किया था.
लेह के पश्चिम में ७० किमी दूर स्थित अल्ची एक हजार वर्ष पुरानी मॉनेस्ट्री है, जहाँ मुख्य द्वार तक पहुंचने का मार्ग घुमावदार, शांत व शीतल है, संकरे मार्ग में
दोनों और दुकाने लगी थीं. कई विदेशी यात्री वहाँ दिखे जो इतिहास में काफी रूचि
दिखा रहे थे.
पत्थर साहब गुरुद्वारा भी बहुत भव्य है जो सेना द्वारा संचालित किया जाता है.
इसका महत्व इस बात से बढ़ जाता है कि गुरु नानक देव अपनी तिब्बत यात्रा के दौरान
यहाँ ठहरे थे. कहा जाता है कि एक दानव के उनके ध्यान को भंग करने के लिए एक चट्टान
उनकी तरफ फेंकी पर उन्हें कोई नुकसान पहुंचाए बिना पत्थर की वह चट्टान वहाँ रुक
गयी, जिसे आज तक पूजा जाता है. वहाँ उन्होंने
कड़ाह प्रसाद तथा भोजन का प्रसाद ग्रहण किया. लेह शहर में स्थित एक स्थल दातुन साहब
के बारे में भी एक पुस्तक में पढ़ा था, जहाँ गुरु नानक ने
सोलहवीं शताब्दी में एक वृक्ष लगाया था.
इस समय संध्या होने में अभी कुछ समय है. तेज हवा के कारण पेड़ों की टहनियाँ आपस
में व टिन के शेड से टकरा रही हैं, जिसके कारण आवाज
पैदा हो रही है. धूप सात बजे तक कम होगी तब वे सांध्य भ्रमण के लिए जायेंगे तथा
बाद में आज उतारे फोटो देखेंगे. सामान की पैकिंग लगभग हो चुकी है. कल सुबह आठ बजे
की उड़ान से उन्हें दिल्ली जाना है और परसों इस वक्त असम में अपने घर में होंगे.
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