आज सुबह वे लेह पहुंच गये थे.
कल दोपहर घर से निकले थे, धूप तेज थी पर डिब्रूगढ़ हवाई अड्डे के रास्ते में दो बार वर्षा हुई
और ठंडी हवा चलने लगी. दिल्ली तक की हवाई यात्रा अच्छी रही, इन्डिगो का आतिथ्य स्वीकार
करते हुए उपमा और मसाला चाय ली. शाम को मंझले भाई के घर पहुंचने से पूर्व भाभी
को फोन किया, वह घर से बाहर थी, पर उनके पहुंचने से पूर्व ही लौट आई. भाई एक दिन
पूर्व लेह पहुंच गया था, भाभी द्वारा परोसा स्वादिष्ट भोजन
खाकर वे जल्दी ही सो गये पर देश की राजधानी में भी बिजली चले जाने से एसी बंद हो
गया और नींद खुल गयी, सुबह अभी आकाश में तारे थे जब देहली एयरपोर्ट पर पहुंच गये. वहाँ एक
लद्दाखी महिला बहुत अपनेपन से मिली जो अपने ग्याहरवीं में पढ़ रहे पुत्र को छोड़ने
दिल्ली आई थी और अब वापस जा रही थी, लेह में उच्च शिक्षा का अभी
उतना अच्छा प्रबंध नहीं है, हाई स्कूल के बाद बच्चे श्रीनगर, जम्मू, दिल्ली या चंडीगढ़ पढ़ने के
लिए जाते हैं. पांच बजे जहाज में बैठे पर अंततः छह बजे जेट कनेक्ट का जहाज उड़ा और
एक घंटे की यादगार यात्रा के बाद लेह के ‘कुशोक बकुला रिनपोछे एयरपोर्ट’ पर
पहुंचा. उन्होंने खास तौर पर खिड़की के पास वाली सीट लेनी चाही थी पर पता चला
पन्द्रहवीं कतार में खिड़की ही नहीं है, सीट बदल कर चौदहवीं कतार
में आये पर खिड़की के पास जगह खाली नहीं थी, दूर से ही हिमाच्छादित
पर्वत श्रृखंलाओं को देखते और तस्वीरें उतारते एक घंटे के समय का पता ही नहीं चला.
जहाज से उतरते ही पता चला कि वायुदाब व ऑक्सीजन के कम होने का असर कैसे प्रभाव डाल
सकता है. जगह-जगह सूचनाएं दी जा रही थीं कि चौबीस घंटों तक ज्यादा श्रम न करें, अपने कमरे में ही रहें और
शरीर को यहाँ के वातावरण के अनुकूल होने दें. उन्होंने भी बचाव के लिए पहले ही
डायमॉक्स नामक दवा की एक गोली ले ली थी और एक नाश्ते के बाद लेने वाले थे.
आज पहला दिन विश्राम का दिन
है. यहाँ आंचल नामका एक डोगरी रसोइया जो ऊधमपुर का रहने वाला है, खाना बनाता है. सुबह आलू का
परांठा, दो रोटियों के बीच भुने हुए आलू भर कर बनाया और दोपहर को भोजन के साथ
बूंदी का रायता विशेष था जिसमें पुदीने की खुशबू आ रही थी. उन्हें अब तक तो कोई विशेष परेशानी
नहीं हुई है बस हाथों की अँगुलियों में झुनझुनी सी महसूस हो रही है रह रहकर ! शाम
के साढ़े पांच बजने को हैं, धूप बहुत तेज है अब तक. अब रात्रि के साढ़े नौ बजने को हैं. दिन भर आराम करने के बाद शाम
को लेह शहर देखने गये,
लगभग साठ प्रतिशत
दुकानें कलात्मक वस्तुओं, पश्मीने
व याक के ऊन से बनी शालों आदि की थीं, यानि पर्यटकों के लिए. नन्हा साथ में नहीं आ सका है, उसके लिए दो वस्तुएं खरीदीं. बाजार की कई
तस्वीरें भी लीं. एक मठ ‘जौखांग’ भी देखा. जहाँ विभिन्न मुद्राओं में बुद्ध की
आकर्षक मूर्तियों से सजा विशाल हॉल था. एक गोल बाजार देखा, तिब्बती लोगों का रिफ्यूजी मार्किट भी कई
जगह था. एक रेस्तरां में कहवा पीया. एक तिब्बती वहाँ स्टिक्स से नूडल्स खा रहा था, तभी एक विदेशी लडकी भी आयी, मुस्कुराती हुई, उसने लद्दाख का अभिवादन ‘जूले’ कहा और
प्रेम से दुकानदार से मिली. जब तक भोजन आया वह लिखती रही. वह बहुत आकर्षक थी और
शांत लग रही थी. जिस दुकान से उपहार लिए, उसका कश्मीरी मालिक भी काफी मिलनसार था. बाजार में सडकें कई जगह टूटी
हुई हैं, पुनर्निर्माण का काम चल रहा
है. क्षेत्रफल के हिसाब से देखे तो लेह काफी बड़ा है पर पुराना बसा हुआ शहर छोटा
सा ही है, तुलना में गाड़ियों की संख्या
बहुत ज्यादा है. पूरा लद्दाख क्षेत्र दो जिलों से बना है, लेह तथा कारगिल. सारसिंग नामका एक
वृक्ष यहाँ कई जगह उगते हुए देखा, वनस्पति
ज्यादा नहीं है. चारों और खाली पहाड़ हैं और ऊपर बर्फ से ढके श्वेत पहाड़ ! सम्भवतः
यह विश्व का सबसे ऊँचा और ठंडा, बसा
हुआ प्रदेश है.
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 18-01-2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2852 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद