मृत्यु और जीवन - २
जीवन का अनुभव ही क्या नहीं है
मौत का अनुभव
चेतना सरक जाती है जब भीतर
देह को छोड़कर..
भीतर एक अंकुर है कोमल जीवन का..
जिस पर आवरण है देह का
देह मरेगी पर जीवन बचेगा
देह जिसका आवरण है
उससे मिलन करना होगा
जड़ें दिखाई नहीं पड़तीं
वृक्ष दिखाई पड़ता है
अंकुर दिखाई नहीं पड़ता
बीज दिखाई देता है
भीतर है जो अव्यक्त
वही अभिव्यक्त होता है बाहर
अभिव्यक्ति को ही जो समझते हैं जीवन
वे डरे हैं हर पल मौत से
कंपते हैं प्राण उनके
परिचित हैं जो भीतर उस अव्यक्त से
तैयार रहते हैं हर पल उस मौत के लिए
जो केवल देह को ही घटती है !
मृत्यु और जीवन – ३
विलीन हो जाता है तब मृत्यु का भय
जब मिलता है भीतर अमृत का कोष
तब बाहर भी घटता है संतोष
देह जाएगी एक दिन तय है
तब उसे किस बात का भय है
वह जानता है मृत्यु का राज
जैसे कोई दिए की बाती उढ़का दे
सिमट आये प्रकाश और फिर समाप्त हो जाये
उर्जा वापस लौट गयी जिस क्षण
देह से टूट जाता है नाता उसका
जो देख ले जीते जी सिमटने को ऊर्जा के
वह जानता है नहीं मरा हूँ मैं
तैयार हूँ एक नई यात्रा के लिए
जानते हुए भीतर जाना होगा
शांत होकर भीतर सिकुड़ना होगा
देह से अलग खुद को देखना होगा
जैसे प्रकाश है बल्ब में वैसे ही
जीवन है देह में
देह से अलग स्वयं को देखना ही
ध्यान है !
बहुत सुन्दर
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