Tuesday, October 15, 2013

स्वप्नों का संसार



आज सुबह वह उठी तो रात देखे सपनों की बातें दिमाग में स्पष्ट थीं, अजीबोगरीब सपने, सोने से पहले टीवी सीरियल देखकर सोयी थी, जिसमें murder, kidnapping, war सभी कुछ था, इसी वजह से और उनकी यात्रा के प्रति आशंका लिए मन रात भर कल्पनाएँ बुनता रहा. एक नृत्यांगना भी देखी जो अख़बारों में English column भी लिखती है और भी कई बेसिर पैर की बातें... कल शाम क्लब में उसने जून से कहा, वह उसके बैडमिंटन खेल को प्रोत्साहित नहीं करते हैं, तो उन्होंने पता नहीं इसका क्या अर्थ लिया, उसे लगा, इन्सान अपने अलावा और किसी से भी अपने मन की बात नहीं कह सकता. बाद में एक बालिका से टीटी में हार गयी, खैर.. उसका अफ़सोस नहीं हुआ बल्कि आनन्द आया. लाइब्रेरियन ने पिछले हफ्ते ली एक साप्ताहिक पत्रिका north-east वापस करने के लिए कहा था, रद्दी में चली गयी है शायद, उसके बदले में कोई और पत्रिका देने से शायद काम चल जाये. सुबह-सुबह नन्हे को भी उपदेश सुनने पड़े...उसे लगता है कि उनका कोई असर होने वाला नहीं है सो चुप रहना ही बेहतर है, वह अपनी प्रक्रति के अनुसार एक ढर्रे में ढलता जा रहा है जिसे बदलना सम्भव तो है पर मुश्किल भी है.

इस वक्त उसका मन एक ऐसे दुःख को अनुभव कर रहा है जिसका अहसास पहले कभी नहीं हुआ, यदि हुआ होगा तो बरसों पहले जब किसी सखी ने स्कूल या कालेज में उसका दिल तोडा होगा. आज ऑंखें भरी हैं और दिल भारी, एक सखी के कुछ शब्द कानों में अब भी ताजा हैं, एक मित्रता की मौत कैसे होती है यह तो पता नहीं पर कहीं गहरे कुछ चटक जरुर गया है.

डायरी उठाई तो एक दर्द भरी कविता अंगड़ाई ले रही थी. सच ही है दुःख मानव को सृजनशील बनाता है. कल रात भी सपने देखती रही और एक पहेली का हल जो पहले नहीं मिल रहा था, काफी देर बाद मिल ही गया. सपने में ही पायी वह ख़ुशी अब भी याद है, कैसा सुकून मिला था, पर सपने आखिर सपने ही होते हैं. पहले-पहल जब आँख खुली तो शायद उसी स्वप्न की वजह से मन हल्का लगा कि शायद सब कुछ भुला दिया है पर कहाँ, जरा सा होश आया नहीं कि वही दंश भरे शब्द कानो को बेंध कर दिल को चीरते चले गये, शायद वह overreact कर रही है. उसे इस वाकये को इतनी अहमियत नहीं देनी चाहिए, पर उसका मन, उसका पागल मन किस कदर जुड़ा था, उसे ऐसी ठेस लगने पर प्रतिक्रिया स्वाभाविक नहीं क्या ? समय धीरे-धीरे सारे घाव भर देता है पर एक मित्र का दिया घाव ऐसा गहरा होता है कि समय के पास भी उसकी कोई दवा नहीं होती.. क्यों नहीं होती होगी अगर कोई लेना चाहे और न मिले ऐसा तो हो ही नहीं सकता, अचानक उसके मन के भावों में जोश भरने का श्रेय एक अन्य परिचिता को है, जो क्लब की पत्रिका के लिए कुछ लिखने का वायदा कर चुकी हैं, पहले भी वादे तो बहुतों ने किये पर निभाएं ऐसे लोग कम ही होते हैं. कल शाम जून ने जब उसका चेहरा देखा तो समझ गये, कुछ हुआ है. उस वक्त की उनकी परेशानी और उसके दुःख को अपना दुःख समझने की वह कोशिश ...उस पल वे दोनों कितना करीब आ गये थे, एक ही सोच में बंधे हुए, सुख की चरम सीमा में भी शायद इन्सान ऐसे ही बंध जाते हैं. ख़ुशी की याद आ रही है.. उसने सोचा, लक्षण तो अच्छे हैं, लगता है जल्दी ही इस सदमे से उबर जाएगी. पर पिकनिक के लिए जिस जोश और मूड की जरूरत होती है वह कहीं मर गया है.


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