छह दर्शनों में एक हैं सांख्य दर्शन. योग तथा सांख्य का एक जोड़ा है, न्याय और
वैशेषिक का एक युग्म है और पूर्व तथा उत्तर मीमांसा एक साथ रखे जाते हैं. सांख्य
दर्शन मोक्ष का दर्शन है. महर्षि कपिल इसके रचियता हैं. सांख्य का अर्थ है सम+आख्य,
ठीक से अपने विचारों को रखना ही सांख्य है. इसे सम्यक ख्यान या विवेक ख्याति भी
कहते हैं. आज सुबह भी योग-प्राणायाम करते समय आचार्य सत्यजित को सुना. इस समय साढ़े
ग्यारह बजे हैं, सुबह का काम समाप्त हो गया है, नैनी सफाई करके गयी और रसोइया भोजन
बनाकर चला गया है. नन्हा दफ्तर चला गया है.
आज वे दुबारा अस्पताल गये, डाक्टर ने कहा, प्लास्टर दुबारा लगाना होगा. दस दिन
बाद फिर बुलाया है. सुबह नींद देर से खुली, कल रात नन्हे को देर से आना था, मन में
कहीं पीछे विचार चल रहा था कि अभी तक आया या नहीं, सो गहरी नींद नहीं आ रही थी.
सुबह छत पर सूर्योदय देखने गये, बहुत सुंदर दृश्य था. रक्तिम शोख रंग का सूर्य एक
लाल गेंद की तरह लग रहा था. वापस आकर प्राणायाम किया, नाश्ते में वेजरोल बनाये.
लंच में इडली, सांबर व चटनी. अभी-अभी असम में नैनी से बात की, वहाँ सब ठीक है.
नव प्रातः नव दिवस उगा
शुभ रूप धरे नव गगन सजा
मौसम सुहाना है. आज सुबह भी उगते हुए बाल सूर्य की तस्वीरें उतारीं और फेसबुक
पर पोस्ट कीं. छत पर हवा ठंडी थी और स्वच्छ भी, सोचा, कल से प्राणायाम वहीं करेगी.
मीनाक्षी मन्दिर के बाहर बैठी मालिन से बेला के फूलों की माला खरीदी, तो लाल गुलाब
के फूल उसने अपने आप ही दे दिए. कल सेक्रेटरी का फोन आया, उसे हिंदी का आलेख भेजा,
उसे PPT के लिए तस्वीरें भेजने को कहा. उम्मीद तो है कि अगले महीने
के दूसरे सप्ताह में वे घर पहुंच जायेंगे. उसके तत्काल बाद ही क्लब का वार्षिक कार्यक्रम है, वह शामिल हो पायेगी. भविष्य
ही बतायेगा क्या होने वाला है.
उसने गुरूजी को एक पत्र लिखा, उन बीसियों पत्रों की तरह जो कभी प्रेषित नहीं
किये गये, क्योंकि लिखते ही भीतर शांति के रूप में उनका जवाब उसे सदा ही मिलता रहा
है. उसके पास बहुत समय है पर इस समय को व अपने भीतर की ऊर्जा को सार्थक रूप देने
की सामर्थ्य नहीं है. भीतर एक मौन है, जिसमें से कुछ भी नहीं छलकता. यह मौन इतना
पवित्र है और इतना अचल कि अति प्रयास करके भी इसे तोड़ा नहीं जा सकता. यह वहीमौन है जिसकी चाहना उसने की थी. भीतर कोई कामना नहीं है,
कोई दुःख नहीं, कोई उद्वेग नहीं और शायद साहित्य रचने के लिए यही सब चाहिए. इसीलिए
अब न तो कविता बनती है न ही कविता रचने के लिए भीतर प्रेरणा ही उदित होती है. उसे
अपने समय का और कोई उपयोग आता भी तो नहीं. उसने गुरूजी से राह दिखाने को कहा.
बिछड़ गयी है कविता या
छोड़ दिया है शब्दों का खजाना
नदी के उस तट पर
मंझदार ही मंझदार है अब
दूसरा तट कहीं नजर नहीं आता
एक अंतहीन फैलाव है और सन्नाटा
किन्तु डूबना होगा सागर की अतल गहराई में
जहाँ मोती-माणिक भी हैं और शैवाल भी
अभी ऊर्जा शेष है जिसे ढालना है सौन्दर्य और भावना में
वक्त के इस विराम को वरदान में बदलना है
जीवन की इस सौगात को
यूँही नहीं लुटाना है
अभी हाथों में कलम है
और दिल में शुभ भावना है
बहुत बहुत आभार दिलबाग जी !
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteस्वागत व आभार गगन जी !
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