Monday, March 19, 2018

लहरों बिन सागर


दो दिनों का अन्तराल ! शाम के चार बजने वाले हैं. जून अभी नहीं आये हैं. दोपहर को उनसे किसी विषय पर मतभेद हो गया, यह आवश्यक तो नहीं कि जो भाव किसी भी विषय को लेकर उसके मन में हों, वे उनके मन में भी हों. वैसे भी दोपहर को वे भोजन के लिए आते हैं, कुछ ही समय उसके बाद आराम के लिए मिलता है, जिसे शांति से व्यतीत करना चाहिए. आज सुबह समय पर उठे, तारों की छाँव में प्रातः भ्रमण को गये, लौटकर प्राणायाम किया. बंगलूरू से आई मोटी पीली सूजी का मीठा नाश्ता बनाया. व्हाट्सएप पर संदेशों का आदान-प्रदान किया. विश्व विकलांग दिवस के कार्यक्रम के लिए मृणाल ज्योति के बच्चे क्लब में रिहर्सल कर रहे हैं, जिसे देखने गयी. कल भी रिहर्सल होगी, परसों तो कार्यक्रम ही है, दिन भर व्यस्तता बनी रहेगी. बड़े भाई का जन्मदिन है आज, उन्हें शुभकामनायें दीं. कल उनके लिए एक कविता लिखी थी, शायद पढ़ ली होगी अब तक. मंझले भाई की बिटिया को दिल्ली में जॉब मिल गयी है, वह खुश है, इसलिए फेसबुक पर उसकी एक पोस्ट को सराहा भी. वे सुख बाँटना चाहते हैं और दुःख में सिकुड़ जाते हैं. छोटी बुआ के साथ भी उसके संबंध पहले से मधुर हो ही जाने वाले हैं, प्रेम कभी मरता नहीं ! आज नूना के फोन का कवर भी आ गया है, अब सुरक्षित हो गया है फोन.

आज सुबह नींद खुली तो एक स्वप्न देख रही थी, पता चला कि खुद ही बना रही थी. स्वप्न यदि वे स्वयं गढ़ें तो वे उनके लिए सुखद ही होंगे, दुःस्वप्न तो नहीं होंगे, वैसे दुःस्वप्न भी वे ही बनाते हैं पर जब असजग होते हैं तब ! प्रातः भ्रमण के समय जून ने कहा, कल रात देहली से आये एक फोन ने उनकी नींद ही बिगाड़ दी, इस बात पर तो उसने उन्हें स्वयं को जानने के लिए एक पूरा वक्तव्य ही दे डाला. ध्यान के लिए उन्हें उकसाया, पता नहीं इसका उन पर कितना असर हुआ, पर उसके सामने बहुत कुछ स्पष्ट होता गया. स्नान के बाद जैसे भीतर से कोई पढ़ाने लगा. प्रकृति, पुरुष, परमात्मा, आत्मा, मन, बुद्धि, संस्कार के आपसी संबंध ! वे जो वास्तव में हैं, उसको जानने के बाद जीवन एक खेल बन जाता है, एक आनंदपूर्ण अवस्था..कल रात को सोने से पूर्व अष्टावक्र गीता का एक श्लोक सुना, अद्भुत है यह ज्ञान..वास्तव में उन्होंने न कभी कुछ किया है न करेंगे, वे साक्षी मात्र हैं. सागर की सतह पर उठती-गिरती लहरें ही तो सागर नहीं हैं, अम्बर पर उड़ते मेघ जैसे आकाश नहीं है, वह विशाल है, अनंत है, अचल है, सदा है, फिर चिंता व दुःख किस बात का ? अभी कुछ देर में ड्राइवर आने वाला होगा, आज भी क्लब जाना है, कल की तैयारी आज भी वहाँ चल रही होगी.  

उस दिन सुबह, दोपहर, शाम सभी मृणाल ज्योति के नाम थी. अगले दिन एक शादी में जाना था. तीसरे दिन दोपहर को आल्मारी सहेजी और शाम को महिला क्लब की मीटिंग थी. कल तो इतवार था ही, शाम को सामाजिक शिष्टाचार निभाने वे एक मित्र परिवार से मिलने गये, दोपहर को बच्चों की संडे क्लास. चार दिन पलक झपकते गुजर गये. आज जून को तीन दिनों के लिए देहली जाना है. उसे साधना के लिए अधिक समय मिलेगा. आजकल प्रतिपल आत्म स्मरण बना रहता है. आज सुबह स्वप्न था या ध्यान या तंद्रा, किसी ने कहा, तुम परमात्मा से प्रेम करती हो, यह सही नहीं है. तुम विशेष स्वाद से प्रेम करती हो. विशेष भोजन के प्रति उसकी यह आसक्ति शायद ठीक नहीं है. आसक्ति किसी भी वस्तु के प्रति ठीक नहीं है, पर यह निषेध की भावना, यह द्वंद्व उसका स्वयं का ही बनाया हुआ है. भोजन तो भोजन है, शायद यह उसका अज्ञान है जो भोजन के प्रति इतनी सावधानी रखना वह नहीं चाहती. साधक को तो सभी प्रकार की कामनाओं से ऊपर उठना ही होगा, यदि वह आगे बढ़ना चाहता है. अभी तक की उसकी साधना जहाँ तक ले आई है, वही तो लक्ष्य नहीं है. अभी तो मंजिलें और भी हैं ! दूर है वह परमात्मा का शांति धाम..हल्के होकर वहाँ जाना है, अभी भी आवाज ऊंची हो जाती है. अभी भी ‘न’ सुनने पर भीतर कुछ कम्पन होता है एक क्षण के लिए ही सही, अभी अखंड आनंद का वरदान फलित नहीं हुआ है. अनंत है आकाश और अनंत है उनकी सम्भावनाएं !  

5 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 22.03.2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2917 में दिया जाएगा

    धन्यवाद

    ReplyDelete
  2. बहुत बहुत आभार दिलबाग जी !

    ReplyDelete
  3. Replies
    1. स्वागत व आभार शशि जी !

      Delete