आज इस मौसम की अधिकतम गर्मी है ऐसा लग रहा है. योग कक्ष में दो पंखे चलाए और एसी भी. कल से आधा घन्टा देर से आने को कह दिया है. तीन नई साधिकाओं ने आना आरंभ किया है. सुबह वह मृणाल ज्योति गयी, पहले बच्चों को फिर टीचर्स वर्कशॉप में बड़ों को योग कराया. कल भी जाना है, कल वह उन्हें अस्तित्त्व के सात स्तरों के बारे में बता सकती है. देह, प्राण, मन, बुद्धि, स्मृति, अहंकार और आत्मा ! मानव को स्वयं के आत्मा होने की स्मृति नहीं रहती, कभी देह मानकर सुखी-दुखी होते हैं, कभी प्राण मानकर भूख-प्यास से पीड़ित होते हैं तो कभी मन के साथ एकात्म होकर शोक और मोह का शिकार होते हैं. अपनी मान्यताओं के कारण अन्यों को नीचा देखते हैं. अहंकार का शिकार होकर स्वयं को संसार से पृथक मानते हैं. आत्मा निर्विकार है, वह कभी बदलती नहीं है. यदि कोई व्यक्ति अपनी किसी समस्या से परेशान होता है तो वह उसका हल नहीं ढूंढ पाता, अन्य व्यक्ति झट उसका हल बता देता है, जबकि यदि वही समस्या उसके साथ घटी हो तो वह परेशान हो जाता है, स्वयं को उसका हल नहीं बता पाता. इसका कारण है स्वयं से चिपकाव, उन्हें अपने तन, मन को एक साधन मानकर उसका उपयोग करना है, तब वे मित्र बनेंगे. वे स्वयं को जानें कि किस तत्व के बने हैं. प्रेम, उत्साह, आनंद, शक्ति व ज्ञान आत्मा का स्वभाव है. ध्यान और योग से वे एक अपने भीतर एक ऐसी स्थिति का अनुभव करते हैं जो सहज है. उसी सहज अवस्था में आकर वे जीवन के सहज आनंद का अनुभव कर सकते हैं और उनके माध्यम से चारों ओर भी आनंद का प्रसार होता है. एक परिचिता का फोन आया, उसकी सासु माँ अस्पताल में हैं, शाम को वे देखने गए, उसने उनके लिए प्रार्थना करने को कहा. कितनी सुंदर थी उसकी सास पर मृत्यु, रोग और जरा ने सब बदल दिया. परिवर्तन इस जगत का नियम है.
रात्रि के आठ बजे हैं, तेनाली रामा में पिछले कुछ दिनों से रानियाँ केवल महिलाओं की सहायता से राजकाज चला रही थीं, पर आज रामा अपनी सूझबूझ से पुरुषों को भी दरबार में जगह दिलाता है. सृष्टि का नियम यही है, यहां दो पहियों के बिना गाड़ी आगे नहीं बढ़ती. एक में ही जो दो को देख लेता है वह द्वंद्व से मुक्त हो जाता है, जगत में व्यवहार करते समय ही उसे दो का सहारा लेना पड़ता है. आज दोपहर नैनी से पका कटहल कटवाया, बहुत मीठा है, जून को इसकी गन्ध पसन्द नहीं है. सुबह भ्रमण से वापस आकर इस मौसम में पहली बार हरी घास पर गिरे हुए जामुन उठाये ताजे और मीठे... नन्हे का फोन आया दोपहर को, उसे जन्मदिन की कविता के बारे में बताया, जो सुबह अनायास ही लिखी गयी. कभी कोई भाव इतना तीव्र होता है कि अपने आप ही शब्दों में पिरो लेता है स्वयं को. श्रद्धा सुमन में बाल्मीकि रामायण का अगला अंश लिखा, गुह भरत से कहते हैं, इस वन को तुम घर के बगीचे जैसा ही समझो, अर्थात कोई संकोच न करो. जबकि कुछ देर पूर्व ही वह उस पर सन्देह भी कर रहा था. मानव मन ऐसा ही है पल में टोला पल में माशा ! आज सुबह वर्षा का एक वीडियो भी बनाया.
और उस पुरानी डायरी की बात... उस दिन के पन्ने पर लिखी सूक्ति थी, बुढ़ापे की झुर्रियां आत्मा पर न पड़ने दो. पिताजी ने कहा, बुढ़ापे की झुर्रियां शरीर पर भी मत पड़ने दो ! उन्होंने उस दिन उससे उसके स्वास्थ्य तथा आहार के बारे में बातचीत की. वह कह रहे थे कि वह नौकरी में गुलाम हो गये हैं, वह थक गए हैं, पर पापा, रिटायरमेंट के बाद आप काम की तलाश करेंगे, बिना कुछ किये आप रह ही नहीं सकते, इतवार काटना तो मुश्किल होता है आपके लिए.
उसे पढ़कर आश्चर्य हुआ, क्या कभी ऐसी बात भी हुई थी !
बहुत खूब।
ReplyDeleteसुन्दर आलेख।