“दुःख, उदासी, शरीर में अस्थिरता, श्वास में कंपन आदि समाधि में अंतराय होते हैं. आध्यात्मिक दुःख यदि न हों तो अन्य दो प्रभावित नहीं कर सकते”. आज सुबह टीवी पर उपरोक्त वाक्य सुना. वैदिक चैनल पर डॉ सुमन विद्यार्थियों को ‘पतंजलि योग सूत्र’ पढ़ाते समय कह रही थीं. समाधि शब्द सुनते ही उसके भीतर कोई कमल खिल जाता है. सम्भवतः योग के हर साधक का यही लक्ष्य होता है, वह भाव समाधि का अनुभव कर चुकी है, निर्विकल्प समाधि का अनुभव इसी जन्म में होगा, ऐसा स्वप्न भी कितनी बार देखती है. परमात्मा की कृपा से ही यह सम्भव होगा. कल सुबह की तैयारी हो चुकी है, सामान काफी हो गया है इस बार. ग्यारह दिनों के लिए वे बाहर जा रहे हैं. चार रात्रियाँ कोलकाता में, सात भूटान में. तीन थिम्पू, दो-दो पुनाखा और पारो में। आज योग कक्ष का रेगुलेटर बदल गया है. पुराने में अंक स्पष्ट नहीं दिखते थे, पर इतने वर्षों से काम चला रहे थे वे. कई बार समस्या का हल कितना आसान होता है पर उन्हें समस्या के साथ रहने की आदत पड़ जाती है. जैसे मानव देह के रोग, कमजोरी आदि से परेशान रहता है, पर आत्मा की खोज नहीं करता. परेशानी के साथ जीने की आदत डाल लेता है. आज सुबह अकेले ही प्राणायाम किया, जून तैयारी में लगे थे. उन्हें साधना के लिए प्रेरित करने का अब मन नहीं होता, वह स्वयं के लिए निर्णय लेने में समर्थ हैं. वाणी का दोष स्पष्ट नजर आने लगा है, सो बोलने से पूर्व बोलने का तरीका भी स्पष्ट हो रहा है. परमात्मा कितना धैर्यपूर्वक उन्हें सिखाते हैं, वैसे वे खुद हैं ही कहाँ, वही तो है, वही खुद को संवार रहा है, उसी का एक अंश... जिसने स्वयं को उससे जुदा मान लिया था भ्रम वश !
अभी कुछ देर पहले ही यात्रा से वह घर लौटी है, जून घर नहीं आये, सीधा दफ्तर चले गए. उन्हें किसी मीटिंग में जाना था. नैनी ने सफाई का काम करवा दिया है. सफाई कर्मचारी भी आ गया था और धोबी भी, घर कुछ ही घण्टों में व्यवस्थित हो गया है. सुबह की फ्लाइट से आने का कितना फायदा है. आज पूरे ग्यारह दिनों बाद यह डायरी खोली है. भूटान में हर दिन का यात्रा विवरण लिखा था, छोटी डायरी में. आज दोपहर से टाइप करने आरंभ करेगी. मृणाल ज्योति के लिए भी कुछ लिखना है. पिछले दिनों जे कृष्णामूर्ति की किताब पढ़ती रही. कोलकाता में कल काफी समय मिला. बहुत कुछ स्पष्ट होता जा रहा है. मन किस तरह स्वयं ही स्वयं का विरोध करता है, फिर स्वयं के जाल में फंस जाता है. मन यदि स्थिर हो तो भीतर कैसी शांति का अनुभव होता है. किसी भी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति के प्रति जैसे ही मन कोई राय बनाता है उससे दूर हो जाता है. अब वह राय ही उसकी आँख पर पर्दा बन जाती है. जैसे गोयनका जी कहते हैं, प्रतिक्रिया करने के बाद उनका मन प्रतिक्रिया से उत्पन्न संवेदना के प्रति प्रतिक्रिया करता है, मूल कारण तो पीछे छूट जाता है. मन जो भी विचार करता है वे अतीत के अनुभवों पर आधारित होते हैं, यानि अतीत की लहरें वर्तमान के तट से टकराती हैं और भविष्य का जन्म होता है. शुद्ध वर्तमान को वे देख ही नहीं पाते. मन अपनी धारणाओं, मान्यताओं और विश्वासों के आधार पर एक मशीन की तरह काम करता है. ‘ऐसा होगा तो ऐसा करना है’, उसका अपना नियत एजेंडा है.
आज चौथा दिन हैं उन्हें वापस लौटे, अभी भी मन भूटान की स्मृतियों से भरा है. जून ने जिस किताब का ऑर्डर वहाँ से किया था, वह आ गयी है. काफी मोटी पुस्तक है, भूटानी इतिहासकार की. उसे पढ़ना शुरू किया है, अभी यात्रा विवरण लिखना आरम्भ नहीं किया. आज सुबह स्वप्न में भगवान शिव की एक मूर्ति देखी। अंग स्पष्ट नहीं थे, पत्थर की आकृति से जान पड़ता था कि शिव हैं, फिर कुछ क्षण बाद श्वेत पत्थर की नन्दी की मूर्ति की झलक मिली. कल सुबह भी शिव-पार्वती दोनों की मूर्ति दिखी थी और बाद में भीतर शब्द प्रकट हुए थे दुर्गा,लक्ष्मी, सरस्वती.... भीतर कोई पुरानी स्मृति जाग उठी थी शायद ! आजकल भिन्न-भिन्न गंधों को महसूस करती है, ज्यादातर समय कोई मधुर गन्ध, कभी-कभी धुंए की गन्ध, पता नहीं यह कोई अनुभव है या रोग.. कुछ भी तो नहीं ज्ञात ! कल गुरूजी को सुना, उन्होंने बहुत सरल शब्दों में गूढ़ बातें बतायीं. एक लेखक को क्या और कैसे लिखना चाहिए, यह भी बताया. आज शाम को मीटिंग है, क्लब की एक सदस्या की बेटी का स्वागत समारोह, वह आईएएस में उत्तीर्ण हुई है. कुछ देर पूर्व छोटी बहन से बात हुई, वह खुश थी, परसों से उसे अपने भीतर शांति का अनुभव हो रहा है, ईश्वर उसे सदा इसी तरह प्रसन्न रखे ! उसके भीतर भी शांति का साम्राज्य है, जो अब खण्डित नहीं होता, होता भी है तो कुछ क्षणों के लिये. मन अपने पुराने स्वभाव में लौटना चाहता है, पर मन वास्तविक नहीं है, एक मिराज है ! एक इंद्रधनुष जैसा... मन का कहना नहीं मानना चाहिए अर्थात मन का भरोसा नहीं करना चाहिए, बल्कि मन को कोई तवज्जो नहीं देनी चाहिए जब यह कुछ नासाज हो !
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