जून माह का प्रथम दिन ! वर्षा की झड़ी लगी है, गर्जन-तर्जन भी
जारी है. यात्रा से लौटने के बाद से दिनचर्या अभी तक सुव्यवस्थित नहीं हो पायी है.
शनिवार को सासु माँ व ससुरजी आ रहे हैं, उसके पूर्व ही सब कुछ संवारना है. भीतर जब
तक बिगड़ा है, बाहर भी बिगड़ा रहेगा. झुंझलाहट, अहंकार, कटु शब्द, अवमानना तथा आलस्य
ये सारे अवगुण बाहर दिखायी देते हैं, पर इनका स्रोत भीतर है, भीतर का रस सूख गया
है. सत्संग का पानी डालने से भक्ति की बेल हरी-भरी होगी फिर रसीले फल लगेंगे ही.
संसार का चिंतन अधिक होगा तो उसी के अनुपात में तीन ताप जलाएंगे. प्रभु का चिन्तन
होगा तो माधुर्य, संतोष, ऐश्वर्य तथा आत्मिक सौन्दर्य रूपी फूल खिलेंगे. कितना
सीधा-सीधा हिसाब है. जगत जो दुखालय है दुःख ही दे सकता है, ईश्वर जो अनंत सुख का
भंडार है, नाम लेते ही सारी पीड़ा हर लेता है. अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष तथा
अभिनिवेष ये पांच ही तो क्लेश हैं जो तामसी बुद्धि होने के कारण सताते हैं. उसने
ईश्वर से प्रार्थना की उसकी बुद्धि को प्रकाशित करे.
आकाश में घने बादल
छाये हुए हैं, गरज भी रहे हैं और बरस भी रहे हैं. हवा शीतल हो गयी है और मन भी.
ध्यान में कुछ देर बैठी, ज्यादा समय नहीं मिलता. ईश्वर प्राप्ति के लिए मन में
दृढ़ता नहीं है तभी नियम में दृढ़ता नहीं रहती. मन में तड़प हो, छटपटाहट हो तभी उसका
स्मरण सदा बना रह सकता है.
आज ध्यान में कई
दृश्य दिखे, अंतर्मन की गहराइयों में कितना कुछ छिपा है. एक संस्कार जगते ही उसके
पीछे विचारों की एक श्रंखला जग जाती है. ऊपर-ऊपर से वह कहती है कि देह नहीं है पर
भीतर जाकर पता चलता है, चिपकाव देह से, मन से, बुद्धि से कितना गहरा है.
उसे फिर इस सत्य का
अनुभव हुआ, न बोलना ज्यादा अच्छा है, व्यर्थ बोलने से, यह सही है कि बहुत बार वह
बोलकर बाद में सचेत हुई है, न बोलने से कभी कोई समस्या नहीं हुई. वे जो बोल सकते
हैं यह सोच सकते हैं पर जो बोल ही नहीं सकते वे कितनी विवशता का अनुभव करते होंगे.
इस जगत में कितनी विचित्र परिस्थितियाँ हैं, एक से एक सुखकारी तथा एक से एक
दुखकारी. यह जगत अनोखा है पर अब यह उसे आकर्षित नहीं करता. उसके भीतर का जगत
ज्यादा सुंदर है, वह उसकी पहुंच में भी है. पूरा का पूरा ब्रह्मांड भीतर है.
सूक्ष्म संवेदनाएं, सूक्ष्म भाव, सूक्ष्म तरंगें और विचित्र रंग, विचारों का
उदय..ये सभी कुछ तथ कुछ दृश्य जो ध्यान में दीखते हैं , एक नयी दुनिया में ले जाते
हैं, शायद मृत्यु के बाद और जन्म से पहले की दुनिया ! एक दिन तो उन्हें वहीं जाना
है !
सबकुछ हमारे मन के ऊपर निर्भर है। .प्रकृति का बदलाव निश्चित है और इंसान भी कभी एक जैसा नहीं सकता जीवन भर लेकिन हम स्वीकारने में स्वभावत: देर बहुत कर लेते हैं ।
ReplyDeleteसही कहा है आपने कविता जी, परिवर्तन को जो सहजता से स्वीकार कर लेता है वह मुक्त रहता है.
ReplyDelete