आज बहुत दिनों के बाद डायरी का चिर-परिचित पृष्ठ उसके सम्मुख
है. मौसम ठंडा है बदली भरा. जून दो दिन की छुट्टी के बाद आज दफ्तर गये हैं. उन्हें
घर आये तीन-चार दिन हो गये हैं, अभी तक पूर्व दिनचर्या आरम्भ नहीं हो पायी है.
पिछले महीने के मध्य में वे यात्रा पर निकले थे, एक महीने बाद वापस आये तो उसका गला
ठीक नहीं था, जो अभी तक भी पूरा ठीक नहीं है. यहाँ इतने दिनों के बाद आकर सब कुछ
बदला-बदला सा लग रहा है. सम्भवतः सब कुछ वही है उनका मन ही बदल गया है. पहले सा
नहीं रहा. ह्यूस्टन से वे तीन दिनों के लिए बोस्टन गये थे, जहाँ जून के मित्र और
उसकी पत्नी ने स्वागत किया. मौसम बहुत ठंडा था, जितने समय वे वहाँ रहे, बर्फ गिरती
रही, पहली बार बर्फ से इतने निकट से आमना-सामना हुआ था, वे मंत्रमुग्ध से खिड़की से
देखते रहते, बाहर भी गये तो ढेर सारे वस्त्र पहन कर तथा उन लोगों के दिए जूते पहन
कर. बोस्टन से वे लन्दन गये जहाँ तीन दिनों में मुख्य-मुख्य स्थान देखे. वहाँ भी
ठंड बहुत ज्यादा थी पर बर्फ नहीं गिर रही थी. लन्दन से दिल्ली पहुंचे तो सब कुछ
कितना अलग लग रहा था, वहाँ से एक दिन के लिए पिताजी से मिलने घर गये और फिर वापस असम.
नन्हे की परीक्षाओं में बहुत कम समय रह गया है. अगले महीने उसके इम्तहान है.
अभी-अभी उसे देखा तो पढ़ते-पढ़ते आँखें बंद थीं. जब उसने कहा, सो जाये, तो जग गया,
और सीधे होकर बैठ गया.
आज बहुत दिनों बाद
गुरु माँ को सुना, कह रही थीं कि बिजली की तार पर जैसे प्लास्टिक की परत होती है
और फिर कपड़े की, छूने पर कुछ भी महसूस नहीं होता इसी प्रकार मन पर कितनी परतें चढ़ी
हैं तभी तो ईश्वर का नाम लेते रहने पर भी कुछ नहीं होता. वे उस प्रभु को दूर-दूर
से ही याद करते हैं, पास आने से डरते हैं क्यों कि ऐसा करने पर अभिमान को तज देना
होगा.
एक लम्बे अन्तराल के
बाद आज डायरी खोली है. आज सुबह वह हिंदी पुस्तकालय गयी थी. पिछले महीने उसको सर्दी
लगी थी और अब एक-एक करके घर में सभी को जुकाम हो रहा है. मौसम हर दिन नये रूप में
आता है, कभी तेज-गर्मी तो कभी बरसात के बाद की ठंड. आज सुबह से ही शीतल हवा चल रही
है. वह हजारी प्रसाद द्विवेदी तथा डा. राधाकृष्णन की पुस्तकें लायी है. अध्यात्म
के अतिरिक्त और कोई विषय नहीं सुहाता, इसी जन्म में मुक्त होना चाहती है. जीवन
दुखों का घर है, मन को कितने-कितने विकार तपाते हैं. तन को रोगादि, तथा जरा व
मृत्यु तो हैं ही. वह दुखों से भागकर ही मुक्ति चाहती है, ऐसा भी नहीं है, वह उस
अवस्था का अनुभव करना चाहती है जो शब्दातीत है, जहाँ सद्गुरु पहुंचे हैं. उसकी
साधना में कभी-कभी विघ्न पड़ते हैं पर जैसे सहज भाव से चलते हुए नदी अपनी मंजिल पा
लेती है वैसे ही उसकी साधना भी फलवती होगी. सद्गुरु का ज्ञान उसका सबसे बड़ा सहारा
है, ईश्वर का प्रेम भी उसमें मिल जाता है और मन का विश्वास तथा हृदय की श्रद्धा और
आस्था भी उसमें सम्मिलित है, उसे पथ दिखाने के लिए इतने साधन तो हैं फिर उसके
परिजन जो सदा उसका सहयोग करते हैं, वह अपने ज्ञान की परीक्षा परिवार में ही कर
सकती है. हृदय कितना निर्मल हुआ इसकी परख व्यवहार से ही होती है.
बहुत रुचिकर लगा पूरी यात्रा का वर्णन .
ReplyDeleteस्वागत व आभार दीदी ! लगता है पूरा एक साथ ही पढ़ा है आपने..
ReplyDeleteबहुत सुंदर। बोस्टन का रूप गर्मी के दिनों में बिलकुल अलग होता है, ऊर्जा से भरपूर जीवंत
ReplyDeleteस्वागत व आभार..बोस्टन कभी बिना बर्फ के भी हो सकता है..! मेरी कल्पना में तो नहीं आता..आप कहते हैं तो अवश्य होगा.
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